Saturday, July 4, 2009

मैं चाहता भी यही था

मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले।

किताब—ए—माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा
न जाने कौन—सा सफ़्हा मुड़ा हुआ निकले।

जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासिला निकले।


vasim barelvi

Thursday, January 15, 2009

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति,
पलकों में नीरव पद की गति,
लघु उर में पुलकों की संसृति,
           भर लाई हूँ तेरी चंचल
           और करूँ जग में संचय क्या!

तेरा मुख सहास अरुणोदय,
परछाई रजनी विषादमय,
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय,
           खेलखेल थकथक सोने दे
           मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!

तेरा अधरविचुंबित प्याला
तेरी ही स्मितमिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला,
           फिर पूछूँ क्या मेरे साकी!
           देते हो मधुमय विषमय क्या?

रोमरोम में नंदन पुलकित,
साँससाँस में जीवन शतशत,
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित,
           मुझमें नित बनते मिटते प्रिय!
           स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या?

हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन,
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
           भर लाऊँ सीपी में सागर
           प्रिय मेरी अब हार विजय क्या?

चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम,
तू असीम मैं सीमा का भ्रम,
           काया छाया में रहस्यमय।
           प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
 महादेवी वर्मा

Thursday, January 8, 2009

चांद मद्धम है

चांद मद्धम है, आसमां चुप है।
नींद की गोद में जहां चुप है।

दूर वादी पे दूधिया बादल
झुक के पर्वत को प्यार करते हैं।
दिल में नाकाम हसरतें लेकर,
हम तेरा इन्तज़ार करते हैं।

इन बहारों के साये में आ जा
फिर मोहब्बत जवां रहे न रहे।
ज़िन्दगी तेरे नामुरादों पर
कल तलक मेहरबां रहे न रहे।

रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की ग़र्द में न सो जायें।
आ तेरे ग़म में जागती आंखें
कम से कम एक रात सो जायें।

चांद मद्धम है, आसमां चुप है।
नींद की गोद में जहां चुप है।
- साहिर लुधियानवी

हम-तुम

जीवन कभी सूना न हो
कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो।

तुमने मुझे अपना लिया
यह तो बड़ा अच्छा किया
जिस सत्य से मैं दूर था
वह पास तुमने ला दिया

           अब ज़िन्द्गी की धार में
           कुछ मैं बहूँ, कुछ तुम बहो।

जिसका हृदय सुन्दर नहीं
मेरे लिए पत्थर वही।
मुझको नई गति चाहिए
जैसे मिले वैसे सही।

           मेरी प्रगति की साँस में
           कुछ मैं रहूँ कुछ तुम रहो।

मुझको बड़ा सा काम दो
चाहे न कुछ आराम दो
लेकिन जहाँ थककर गिरूँ
मुझको वहीं तुम थाम लो।

           गिरते हुए इन्सान को
           कुछ मैं गहूँ कुछ तुम गहो

संसार मेरा मीत है
सौंदर्य मेरा गीत है
मैंने अभी तक समझा नहीं
क्या हार है क्या जीत है

           दुख-सुख मुझे जो भी मिले
           कुछ मैं सहूं कुछ तुम सहो।
- रमानाथ अवस्थी

Tuesday, December 30, 2008

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

- सुभद्रा कुमारी चौहान


गीत बनाने की जिद है

दीवारों से भी बतियाने की जिद है
हर अनुभव को गीत बनाने की जिद है

         दिये बहुत से गलियारों में जलते हैं
         मगर अनिश्चय के आँगन तो खलते हैं

कितना कुछ घट जाता मन के भीतर ही
अब सारा कुछ बाहर लाने की ज़िद है

         जाने क्यों जो जी में आया नहीं किया
         चुप्पा आसमान को हमने समझ लिया

देख चुके हम भाषा का वैभव सारा
बच्चों जैसा अब तुतलाने की ज़िद है

         कौन बहलता है अब परी कथाओं से
         सौ विचार आते हैं नयी दिशाओं से

खोया रहता एक परिन्दा सपनों का
उसको अपने पास बुलाने की ज़िद है

         सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
         हमको तो अच्छे लगते हैं मंसूबे

लहरें अपना नाम-पता तक सब खो दें
ऐसा इक तूफान उठाने की ज़िद है
- यश मालवीय

ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!



- गुलज़ार